12 जनवरी 2020
स्वामी विवेकानंद एक युवा संन्यासी थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को विदेशों में पहचान दिलाई. साहित्य, इतिहास और आध्यात्म की अद्भुत जानकारी रखने वाले विवेकानन्द को एक ऐसे आध्यात्मिक गुरू के तौर पर जाना जाता है जो हिन्दू धर्म को प्रोग्रेसिव और व्यवहारिक बनाने के समर्थक रहे. कलकत्ता में पैदा हुए स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था. पिता विश्वनाथ दत्त कोलकाता हाईकोर्ट के मशहूर वकील थे. पिता को पश्चिमी संस्कृति से लगाव था, वहीं माता धार्मिक विचारों की महिला थी. परिवार के धार्मिक,
आध्यात्मिक संस्कारों की वजह से बचपन से ही स्वामी विवेकानंद की इन चीज़ों के प्रति उत्सुकता बनी रही. विवेकानंद जी एक नए समाज की कल्पना करते थे, ऐसा समाज, जिसमें धर्म - जाति या स्त्री - पुरुष के आधार पर लोगों में कोई भेद न हो. उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों को इसी रूप में रखा. विवेकानन्द को युवाओं से बड़ी आशाएं थीं वे नए भारत के निर्माण में युवाओं की भूमिका को बेहद अहम मानते थे. 25 साल की उम्र में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया. उसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे देश की यात्रा की. सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी. स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे. वहां उनके विचार सुनकर सभी विद्वान हैरान रह गए. अमेरिका में अब एक बड़ा समुदाय स्वामी विवेकानंद के विचारों को सुनना चाहता था. स्वामी विवेकानंद का मानना था कि आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा. अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की कई शाखाएं स्थापित की. उनका विश्वास था कि हिंदुस्तान की भूमि धर्म एवं दर्शन की भूमि है. यहां बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यह संन्यास एवं त्याग की भूमि है. यूनिटेरियन चर्च में किए गए भाषण में उन्होंने कहा- ‘धार्मिक ग्रन्थों में उनको बहुत आदर की दृष्टि से देखा गया है, जहां स्त्रियाँ ऋषि-मनीषी हुआ करती थीं. उस समय उनकी आध्यात्मिकता सराहनीय थी. पूर्व की स्त्रियों को पश्चिमी मापदंड से जांचना उचित नहीं है. पश्चिम में स्त्री पत्नी है, बाद में वह माँ है. जिस देश में नारियों को भोग विलास का वस्तुमात्र समझा जाता था उस देश में स्वामी जी ने अपने प्रथम उद्बोधन में महिलाओं को बहन कहकर संबोधित किया. यह स्वयं में अमरीकी समाज के लिए एक व्यापक संदेश था. हिन्दू मातृत्व भाव की पूजा करते हैं और सन्यासियों को अपनी माँ के सामने अपने मस्तक से पृथ्वी का स्पर्श करना पड़ता है. पातिव्रत्य का यँहा बहुत सम्मान है. 'मध्यमकालीनी और वर्तमान’ विषय पर बोलते हुए स्वामीजी ने कहा था- भारत में नारी ईश्वर की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और उसका सम्पूर्ण जीवन इस विचार से ओतप्रोत है कि वह माँ है और पूर्ण माँ बनने के लिए उसे पतिव्रता रहना आवश्यक है. उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी माँ ने अपने बच्चे का परित्याग नहीं किया. विवेकानंद जी ने किसी को भी इसके विपरीत सिद्ध करने की चुनौती दी. स्वामी विवेकानन्द ने स्त्रियों को सदैव पूज्य, वरेण्य, जाति की उत्थापिका माना ‘स्त्रियों की पूजा करके ही सब जातियां बड़ी हुई हैं। जिस देश में,जिस जाति में स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वह देश,वह जाति कभी बड़ी नहीं हुई और न हो सकेगी. तुम्हारी जाति का जो अध:पतन हुआ है उसका प्रधान कारण है इन्हीं सब शक्ति-मूर्तियों की अवहेलना. संयुक्त राज्य ने हमारे हृदय में भविष्य में महान संभावनाओं की आशा उत्पन्न की है. किन्तु हमारा भाग्य सारे संसार के भाग्य के सदृश आज कानून बनाने वालों पर निर्भर नहीं करता वरन स्त्रियों पर निर्भर करता है. इस तरह भारतीय नारी का आदर्श, उसकी वर्तमान स्थिति और उसका भविष्य रेखांकित करने के उपरान्त स्वामी जी भारतीय और पाश्चात्य नारियों की तुलना करते हुए भारतीय परिवार में माँ की महत्ता प्रदर्शित करते हैं.
‘पाश्चात्य देशों में स्त्री को पत्नी की दृष्टि से देखा जाता है. वँहा स्त्री में पत्नीत्व की कल्पना की जाती है, इसके विपरीत प्रत्येक भारतीय नारी में मातृत्व की कल्पना करता है. पाश्चात्य देशों में गृह की स्वामिनी और शासिका पत्नी है, भारतीय गृहों में घर की स्वामिनी और शासिका माता है. पाश्चात्य गृह में यदि माता भी हो तो उसे पत्नी के अधीन रहना पड़ता है, क्योंकि गृहस्वामिनी पत्नी है. हमारे घरों में माता ही सब कुछ है, पत्नी को उसकी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए. इसके साथ ही उन्होंने देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाते हुए उनका उद्बोधन किया ‘भारत तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती हैं, मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं, मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, तुम्हारा धन और तुम्हारा जीवन, इन्द्रियसुख, व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं हैं, मत भूलना की तुम जन्म से ही ‘माता ’ के लिए बलिस्वरूप रखे गये हो, यह मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छायामात्र है.’
स्वामी विवेकानन्द के ये अमूल्य विचार जितने उपयोगी तब थे, आज कहीं उससे अधिक हैं. मातृभूमि एवं नारी जाति के प्रति कर्तव्य भाव, सम्मान भाव रखने एवं नारी जाति के स्वयं जागरुक होने से ही हमारे देश का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है. हमें अपने प्राचीन आदर्शों की ओर उन्मुख होना चाहिए.
मोनू झा
छात्र - विधि -2 खण्ड
छात्र नेता - अभाविप
स्वामी विवेकानंद एक युवा संन्यासी थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को विदेशों में पहचान दिलाई. साहित्य, इतिहास और आध्यात्म की अद्भुत जानकारी रखने वाले विवेकानन्द को एक ऐसे आध्यात्मिक गुरू के तौर पर जाना जाता है जो हिन्दू धर्म को प्रोग्रेसिव और व्यवहारिक बनाने के समर्थक रहे. कलकत्ता में पैदा हुए स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था. पिता विश्वनाथ दत्त कोलकाता हाईकोर्ट के मशहूर वकील थे. पिता को पश्चिमी संस्कृति से लगाव था, वहीं माता धार्मिक विचारों की महिला थी. परिवार के धार्मिक,
आध्यात्मिक संस्कारों की वजह से बचपन से ही स्वामी विवेकानंद की इन चीज़ों के प्रति उत्सुकता बनी रही. विवेकानंद जी एक नए समाज की कल्पना करते थे, ऐसा समाज, जिसमें धर्म - जाति या स्त्री - पुरुष के आधार पर लोगों में कोई भेद न हो. उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों को इसी रूप में रखा. विवेकानन्द को युवाओं से बड़ी आशाएं थीं वे नए भारत के निर्माण में युवाओं की भूमिका को बेहद अहम मानते थे. 25 साल की उम्र में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया. उसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे देश की यात्रा की. सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी. स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे. वहां उनके विचार सुनकर सभी विद्वान हैरान रह गए. अमेरिका में अब एक बड़ा समुदाय स्वामी विवेकानंद के विचारों को सुनना चाहता था. स्वामी विवेकानंद का मानना था कि आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा. अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की कई शाखाएं स्थापित की. उनका विश्वास था कि हिंदुस्तान की भूमि धर्म एवं दर्शन की भूमि है. यहां बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यह संन्यास एवं त्याग की भूमि है. यूनिटेरियन चर्च में किए गए भाषण में उन्होंने कहा- ‘धार्मिक ग्रन्थों में उनको बहुत आदर की दृष्टि से देखा गया है, जहां स्त्रियाँ ऋषि-मनीषी हुआ करती थीं. उस समय उनकी आध्यात्मिकता सराहनीय थी. पूर्व की स्त्रियों को पश्चिमी मापदंड से जांचना उचित नहीं है. पश्चिम में स्त्री पत्नी है, बाद में वह माँ है. जिस देश में नारियों को भोग विलास का वस्तुमात्र समझा जाता था उस देश में स्वामी जी ने अपने प्रथम उद्बोधन में महिलाओं को बहन कहकर संबोधित किया. यह स्वयं में अमरीकी समाज के लिए एक व्यापक संदेश था. हिन्दू मातृत्व भाव की पूजा करते हैं और सन्यासियों को अपनी माँ के सामने अपने मस्तक से पृथ्वी का स्पर्श करना पड़ता है. पातिव्रत्य का यँहा बहुत सम्मान है. 'मध्यमकालीनी और वर्तमान’ विषय पर बोलते हुए स्वामीजी ने कहा था- भारत में नारी ईश्वर की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और उसका सम्पूर्ण जीवन इस विचार से ओतप्रोत है कि वह माँ है और पूर्ण माँ बनने के लिए उसे पतिव्रता रहना आवश्यक है. उन्होंने कहा कि भारत में किसी भी माँ ने अपने बच्चे का परित्याग नहीं किया. विवेकानंद जी ने किसी को भी इसके विपरीत सिद्ध करने की चुनौती दी. स्वामी विवेकानन्द ने स्त्रियों को सदैव पूज्य, वरेण्य, जाति की उत्थापिका माना ‘स्त्रियों की पूजा करके ही सब जातियां बड़ी हुई हैं। जिस देश में,जिस जाति में स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वह देश,वह जाति कभी बड़ी नहीं हुई और न हो सकेगी. तुम्हारी जाति का जो अध:पतन हुआ है उसका प्रधान कारण है इन्हीं सब शक्ति-मूर्तियों की अवहेलना. संयुक्त राज्य ने हमारे हृदय में भविष्य में महान संभावनाओं की आशा उत्पन्न की है. किन्तु हमारा भाग्य सारे संसार के भाग्य के सदृश आज कानून बनाने वालों पर निर्भर नहीं करता वरन स्त्रियों पर निर्भर करता है. इस तरह भारतीय नारी का आदर्श, उसकी वर्तमान स्थिति और उसका भविष्य रेखांकित करने के उपरान्त स्वामी जी भारतीय और पाश्चात्य नारियों की तुलना करते हुए भारतीय परिवार में माँ की महत्ता प्रदर्शित करते हैं.
‘पाश्चात्य देशों में स्त्री को पत्नी की दृष्टि से देखा जाता है. वँहा स्त्री में पत्नीत्व की कल्पना की जाती है, इसके विपरीत प्रत्येक भारतीय नारी में मातृत्व की कल्पना करता है. पाश्चात्य देशों में गृह की स्वामिनी और शासिका पत्नी है, भारतीय गृहों में घर की स्वामिनी और शासिका माता है. पाश्चात्य गृह में यदि माता भी हो तो उसे पत्नी के अधीन रहना पड़ता है, क्योंकि गृहस्वामिनी पत्नी है. हमारे घरों में माता ही सब कुछ है, पत्नी को उसकी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए. इसके साथ ही उन्होंने देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाते हुए उनका उद्बोधन किया ‘भारत तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती हैं, मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं, मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, तुम्हारा धन और तुम्हारा जीवन, इन्द्रियसुख, व्यक्तिगत सुख के लिये नहीं हैं, मत भूलना की तुम जन्म से ही ‘माता ’ के लिए बलिस्वरूप रखे गये हो, यह मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छायामात्र है.’
स्वामी विवेकानन्द के ये अमूल्य विचार जितने उपयोगी तब थे, आज कहीं उससे अधिक हैं. मातृभूमि एवं नारी जाति के प्रति कर्तव्य भाव, सम्मान भाव रखने एवं नारी जाति के स्वयं जागरुक होने से ही हमारे देश का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है. हमें अपने प्राचीन आदर्शों की ओर उन्मुख होना चाहिए.
मोनू झा
छात्र - विधि -2 खण्ड
छात्र नेता - अभाविप
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