होली और दिवाली भारत का सबसे पसंदीदा त्योहार होगा मगर बिहार और पटना के दिल में छठ बसता है। यहां होली और दिवाली भी मौज-मस्ती में मनती है, मगर छठ के प्रति श्रद्धा सबसे अलग, सबसे खास है। इंसान कहीं भी रहे, छठ उसे बिहार ले ही आती है। ट्रेनों में लदाकर, बस की छत पर बैठकर परदेसी, चार दिनों के लिए ही सही मगर लौटते जरूर है। जो शरीर से नहीं लौटते, उनका मन लौट आता है।
फिल्मों के मशहूर अभिनेता विनीत कुमार कहते हैं, छठ सूर्य के अस्त और उदय के बीच का जीवन दर्शन है जो अपने समाज अपनी प्रकृति के साथ अपने मूल से जुड़े रहने का संदेश दे जाता है। यह हमारे मूल्यों और संस्कारों को पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाने की कवायद भी करता है। यह अपनी अगली पीढ़ी के लिए भी कुछ देकर जाने की बात करता है।
प्रकृति का मूल संदेश इसी में समाहित है कि अपने मूल को गहराई से समझें। लोग अपनों को न भूलें। अपने पूर्वजों को न भूलें। अपने संस्कारों को याद रखें और आगे की पीढिय़ों तक बढ़ाते रहें। इससे अपने समाज, प्रकृति से जुड़े रहने की लोगों को प्रेरणा मिलती है।
प्रकृति और मानव का सीधा संबंध
छठ में प्रकृति की नायाब पूजा भी की जाती है। आमतौर पर हिन्दू रीति रिवाज में कोई भी अनुष्ठान पुरोहित के बिना पूरा नहीं होता लेकिन छठ की पूजा में किसी पंडित या पुरोहित की जरूरत नहीं होती है। ज्योतिषाचार्य आचार्य राजनाथ झा बताते हैं कि इसमें सूर्य की उपासना की जाती है जिन्हें वेद में सृष्टि की आत्मा माना गया है।
शास्त्रों में बतलाया गया है भावनिच्छंति देवता : यानि देवता भाव की इच्छा रखते हैं इसीलिए पंडित एवं पुरोहितों की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि ये पूजा भाव के साथ की जाती है। लोयला स्कूल का छात्र आर्य कहता है कि वह छठ में अपने नानी घर समस्तीपुर जाता है। छठ के बहाने ही वह साल में एक बार नदी को करीब से देख पाता है।
आस्था के बहाने एकजुटता का संदेश
छठ जहां एक ओर लोक आस्था को मजबूती प्रदान करता है वहीं यह इसके बहाने एकजुटता का भी संदेश दे जाता है। इस बार छठ व्रत करने वाली रेणु सिंह बताती हैं कि चार दिन के इस अनुष्ठान में समाज के एक एक व्यक्ति का शामिल होना अनिवार्य है। घर की महिलाओं से लेकर पुरूष और बच्चे सभी एकसाथ मिलकर पूरी निष्ठा से काम करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस अनुष्ठान में मदद करने वालों को भी व्रती इतना ही पुण्य मिलता है।
बाट जोहती मां के लिए एक बहाना
यह त्योहार उनके लिए और खास हो जाता है जिनके बच्चे घर के बाहर होते हैं और यह पर्व उनके बच्चों से मिलने का जरिया बन जाता है। पेंटिंग की जानी मानी कलाकार स्मिता पराशर बताती हैं कि यह पर्व उन माओं के लिए अपने बच्चों की बाट जोहने का दिन बन जाता है जिनके बच्चे बाहर पढ़ाई या नौकरी के लिए रहते हैं। सालों साल अपने देश से दूर होकर भी इस पर्व में वे जरूर आते हैं। वह बताती हैं कि मेरी मां आज भी छठ में मेरा रास्ता देखती रहतीं हैं।
टुकड़ों में बंटे परिवार को जोडऩे के लिए
मैथिली की प्रोफेसर डॉ. अरुणा चौधरी बताती हैं कि आज इस पर्व की महत्ता इसलिए अधिक है क्योंकि यह परिवारों को जोडऩे का काम करता है। यही एक ऐसा पर्व है जिसमें परिवार के एक-एक सदस्य सभी झगड़ों को भुलाकर एक हो जाते हैं। चाहे वह कहीं भी क्यों न रहें लेकिन अपने परिवार के साथ छठ मनाने जरूर आते हैं। यह एकल परिवार से इतर संयुक्त परिवार को बढ़ावा देता है।
व्यावहारिकता के लिए छठ
प्रकृति की यह पूजा लोगों को कई तरह के व्यावहारिक ज्ञान भी दे जाती है। कथक नृत्यांगना नीलम चौधरी बताती हैं कि इसमें लोग स्वच्छता का खास ध्यान रख्रते हैं जो किसी अभियान से कम नहीं है। यह किसी भी स्वच्छता अभियान से बड़ा अभियान है। आज भी लोग शहर के चप्पे चप्पे को इस पर्व में मिलकर चमका देते हैं। अगर आस्था का यह रूप सालों भर बरकरार रहे तो इससे हमारा दैनिक व्यवहार भी बदल जाएगा और शहर भी खूबसूरत दिखेगा।
महिलाओं की जरूरत समझाने का अवसर
यह उन विचारों को भी तोड़ती है जो पुरुषवादी समाज में महिलाओं के महत्व को नकारती है। गृहिणी रेणु बताती हैं कि यह पर्व समाज में आधी आबादी की जरूरत भी बताती है। धार्मिक अनुष्ठान में अक्सर देखा जाता है कि पूजा पुरुष ही करते हैं लेकिन इस पूजा में विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी सबसे अधिक होती है। नहाय-खाय से लेकर सुबह के अध्र्य तक यह महिलाओं के द्वारा ही सम्पन्न होता है।
फिल्मों के मशहूर अभिनेता विनीत कुमार कहते हैं, छठ सूर्य के अस्त और उदय के बीच का जीवन दर्शन है जो अपने समाज अपनी प्रकृति के साथ अपने मूल से जुड़े रहने का संदेश दे जाता है। यह हमारे मूल्यों और संस्कारों को पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ाने की कवायद भी करता है। यह अपनी अगली पीढ़ी के लिए भी कुछ देकर जाने की बात करता है।
प्रकृति का मूल संदेश इसी में समाहित है कि अपने मूल को गहराई से समझें। लोग अपनों को न भूलें। अपने पूर्वजों को न भूलें। अपने संस्कारों को याद रखें और आगे की पीढिय़ों तक बढ़ाते रहें। इससे अपने समाज, प्रकृति से जुड़े रहने की लोगों को प्रेरणा मिलती है।
प्रकृति और मानव का सीधा संबंध
छठ में प्रकृति की नायाब पूजा भी की जाती है। आमतौर पर हिन्दू रीति रिवाज में कोई भी अनुष्ठान पुरोहित के बिना पूरा नहीं होता लेकिन छठ की पूजा में किसी पंडित या पुरोहित की जरूरत नहीं होती है। ज्योतिषाचार्य आचार्य राजनाथ झा बताते हैं कि इसमें सूर्य की उपासना की जाती है जिन्हें वेद में सृष्टि की आत्मा माना गया है।
शास्त्रों में बतलाया गया है भावनिच्छंति देवता : यानि देवता भाव की इच्छा रखते हैं इसीलिए पंडित एवं पुरोहितों की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि ये पूजा भाव के साथ की जाती है। लोयला स्कूल का छात्र आर्य कहता है कि वह छठ में अपने नानी घर समस्तीपुर जाता है। छठ के बहाने ही वह साल में एक बार नदी को करीब से देख पाता है।
आस्था के बहाने एकजुटता का संदेश
छठ जहां एक ओर लोक आस्था को मजबूती प्रदान करता है वहीं यह इसके बहाने एकजुटता का भी संदेश दे जाता है। इस बार छठ व्रत करने वाली रेणु सिंह बताती हैं कि चार दिन के इस अनुष्ठान में समाज के एक एक व्यक्ति का शामिल होना अनिवार्य है। घर की महिलाओं से लेकर पुरूष और बच्चे सभी एकसाथ मिलकर पूरी निष्ठा से काम करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस अनुष्ठान में मदद करने वालों को भी व्रती इतना ही पुण्य मिलता है।
बाट जोहती मां के लिए एक बहाना
यह त्योहार उनके लिए और खास हो जाता है जिनके बच्चे घर के बाहर होते हैं और यह पर्व उनके बच्चों से मिलने का जरिया बन जाता है। पेंटिंग की जानी मानी कलाकार स्मिता पराशर बताती हैं कि यह पर्व उन माओं के लिए अपने बच्चों की बाट जोहने का दिन बन जाता है जिनके बच्चे बाहर पढ़ाई या नौकरी के लिए रहते हैं। सालों साल अपने देश से दूर होकर भी इस पर्व में वे जरूर आते हैं। वह बताती हैं कि मेरी मां आज भी छठ में मेरा रास्ता देखती रहतीं हैं।
टुकड़ों में बंटे परिवार को जोडऩे के लिए
मैथिली की प्रोफेसर डॉ. अरुणा चौधरी बताती हैं कि आज इस पर्व की महत्ता इसलिए अधिक है क्योंकि यह परिवारों को जोडऩे का काम करता है। यही एक ऐसा पर्व है जिसमें परिवार के एक-एक सदस्य सभी झगड़ों को भुलाकर एक हो जाते हैं। चाहे वह कहीं भी क्यों न रहें लेकिन अपने परिवार के साथ छठ मनाने जरूर आते हैं। यह एकल परिवार से इतर संयुक्त परिवार को बढ़ावा देता है।
व्यावहारिकता के लिए छठ
प्रकृति की यह पूजा लोगों को कई तरह के व्यावहारिक ज्ञान भी दे जाती है। कथक नृत्यांगना नीलम चौधरी बताती हैं कि इसमें लोग स्वच्छता का खास ध्यान रख्रते हैं जो किसी अभियान से कम नहीं है। यह किसी भी स्वच्छता अभियान से बड़ा अभियान है। आज भी लोग शहर के चप्पे चप्पे को इस पर्व में मिलकर चमका देते हैं। अगर आस्था का यह रूप सालों भर बरकरार रहे तो इससे हमारा दैनिक व्यवहार भी बदल जाएगा और शहर भी खूबसूरत दिखेगा।
महिलाओं की जरूरत समझाने का अवसर
यह उन विचारों को भी तोड़ती है जो पुरुषवादी समाज में महिलाओं के महत्व को नकारती है। गृहिणी रेणु बताती हैं कि यह पर्व समाज में आधी आबादी की जरूरत भी बताती है। धार्मिक अनुष्ठान में अक्सर देखा जाता है कि पूजा पुरुष ही करते हैं लेकिन इस पूजा में विशेष रूप से महिलाओं की भागीदारी सबसे अधिक होती है। नहाय-खाय से लेकर सुबह के अध्र्य तक यह महिलाओं के द्वारा ही सम्पन्न होता है।