आईए आपको रूबरू करवाते हैं मंडल विश्वविद्यालय के हैरान कर देने वाले कारनामों से.....
मतलब पैरवी, पैसा और पहुंच के बल पर कोई भी डिग्री ले सकते हैं और उन डिग्रीयों में मनचाहा अंक भी पा सकते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि क्या इन डिग्रियों के लिए विश्वविद्यालय जाना पड़ेगा ? तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। आजकल सबकुछ आॅनलाईन होता है; कुछ ट्रांजैक्शन कीजिए और किसी अलाना-फलाना बाबू से पैरवी के दो शब्द कहवा दीजिए; पर हाँ एक बात याद रखिएगा कि बिना ट्रांजैक्शन के अलाना-फलाना बाबू के भी नहीं चलते; फिर आप चाहे दिल्ली के अक्षरधाम में हों या बंगलुरु में टूर पर या स्विट्जरलैंड में हनीमून पर कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके हस्ताक्षर की भी काॅपी हो जाएगी। अगर आप मुख्य परीक्षा में भी शामिल नहीं हो पाते हैं, तो चिंता की कोई बात नहीं, आप टी०आर० और अंकपत्र में पास हो जाएंगे। और क्या चाहिए ? मतलब अधिकतर लोगोें के लिए तो यह एक अच्छी सुविधा है; पर पढ़ने वालों के लिए यह एक झोल और माथापच्ची से कम नहीं है। मतलब जब कुछ छात्र कक्षा करने के लिए कक्षा पहुंचते हैं तो कक्षा करना कम उन्हें चुनौती ज्यादा लगता है। कुछ छात्र इसलिए कह रहा हूँ कि यहां छात्रों की संख्या अगर कुछ से ज्यादा हो तो विश्वविद्यालय की तस्वीरें बदल सकती है। चलिए इस कुछ छात्रों की ही समस्याओं को जान लीजिए!
कक्षाएं ससमय नहीं होती। कक्षा से पहले महाशय का कार्यालय में एक लंबा-चौड़ा भाषण होता है; फिर बीच में मन किया तो कक्षा की ओर चलेंगे। वहां कक्षा की बातें कम और नोट्स खरीद-फरोख्त की बातें ज्यादा होंगी। फिर कोई स्काॅलर आ जाएगा फिर उसे समय देकर किसी भाइवा में शामिल होंगे, वहां चाय-पानी और नास्ता चलेगा, फिर उसके बाद हास्य-व्यंग्य और श्रृंगार रस में डूब जाएंगे। अब यहां भी एक झोल है जिसने नोट्स लिया उनके लिए कई सुविधाएं जैसे बिना कक्षा और बिना आंतरिक परीक्षा दिए उसे सी०आई०ए०(Continious Internal Assessment) में सर्वाधिक अंक मिल जाएंगे। पर जिसने नहीं लिया वो कितना भी कक्षा करें, कितना भी अच्छा लिखें उसे कुछ नहीं मिलेगा। मतलब पढ़ने वालों के मनोबल को तोड़ा जाता है और एक झूठे प्रतिमान गढ़ने का असफल प्रयास होता है। सत्र विलंब है, उपर से कम अंकों का दवाब होगा, वहीं छात्र पैरवी-पैगाम, पैसा और पहूंच के शरण में जाएंगे। मतलब मनोबल वाला प्रतिभा गया तेल लेने और रुपयों के बल पर खेल-मेल शुरु हो गया।
अब बात यहीं खत्म नहीं होती। कई महाशय ऐसे भी हैं जिन्हें पढने-पढ़ाने से मतलब अवश्य रहता है; पर ऐसे कुछ ही महाशय हैं। उनके कुछ ही होने का फायदा, उन ज्यादा वाले महाशय को मिलता है जो महाशय कम व्यापारी ज्यादा हैं। इन समस्याओं को लेकर छात्र नेता जब भी मिलते हैं उन्हें आश्वासन दिया जाता है। कुछ विभाग ऐसे हैं जो कुलपति के आदेशों को भी नहीं मानते ।
विश्वविद्यालय प्रशासन सत्र नियमित करने को लेकर इस तरह दौड़ने लगे हैं कि दोपाया से चौपाया बन गए हैं एक उदाहरण देख लीजिए-लड़का के प्रवेश पत्र पर लड़की का फोटो।
माननीय कुलपति महोदय का कहना था कि एक उचित शुल्क पर परीक्षा-काॅपी की छायाप्रति उपलब्ध करवायी जाएगी; पर अगर किसी को भी काॅपी की छायाप्रति उपलब्ध करवायी गयी हो तो कहिएगा। एक बात जरूर है कि उचित शुल्क जरूर ले लिया गया होगा। अब याद आया एक कहावत चोर-चोर मौसेरे भाई । परीक्षा-नियंत्रक का कहना होता है जबतक काॅपी की छायाप्रति उपलब्ध करवायी जाएगी तबतक उस पेपर का फार्म भरकर परीक्षा दे दीजिए ! मतलब मिलीभगत होती है भाई। सब एक ही सुर अलापते हैं ।
अगर छात्र हंगामा करें तो अलाना-फलाना बाबू बोलेंगे-तुमलोगों को मुझे कहना चाहिए था।
बी०एड० मामला सबको याद है कि भूल गए?अगर भूल गए तो अभी याद आ गया होगा। प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्र 'दैनिक अखबार' ख़बर छापते-छापते परेशान, छात्र संगठन परेशान; पर प्रतिकुलपति के चेहरे का भाव भी बदला क्या?नहीं!
माननीय पाठकगण यहीं हकीकत है!
आपलोगों की कृपा है मौका मिले तो इन सभी विषयों पर लिखते रहेंगे।
धन्यवाद!
बने रहिए बीएनएमयू के साथ.
मिलेंगे इसी आलेख पर एक व्यंग्यरुपी कविता के साथ।
विभीषण कुमार
छात्र स्नातकोतर,हिंदी विभाग
बीएनएमयू
मतलब पैरवी, पैसा और पहुंच के बल पर कोई भी डिग्री ले सकते हैं और उन डिग्रीयों में मनचाहा अंक भी पा सकते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि क्या इन डिग्रियों के लिए विश्वविद्यालय जाना पड़ेगा ? तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। आजकल सबकुछ आॅनलाईन होता है; कुछ ट्रांजैक्शन कीजिए और किसी अलाना-फलाना बाबू से पैरवी के दो शब्द कहवा दीजिए; पर हाँ एक बात याद रखिएगा कि बिना ट्रांजैक्शन के अलाना-फलाना बाबू के भी नहीं चलते; फिर आप चाहे दिल्ली के अक्षरधाम में हों या बंगलुरु में टूर पर या स्विट्जरलैंड में हनीमून पर कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके हस्ताक्षर की भी काॅपी हो जाएगी। अगर आप मुख्य परीक्षा में भी शामिल नहीं हो पाते हैं, तो चिंता की कोई बात नहीं, आप टी०आर० और अंकपत्र में पास हो जाएंगे। और क्या चाहिए ? मतलब अधिकतर लोगोें के लिए तो यह एक अच्छी सुविधा है; पर पढ़ने वालों के लिए यह एक झोल और माथापच्ची से कम नहीं है। मतलब जब कुछ छात्र कक्षा करने के लिए कक्षा पहुंचते हैं तो कक्षा करना कम उन्हें चुनौती ज्यादा लगता है। कुछ छात्र इसलिए कह रहा हूँ कि यहां छात्रों की संख्या अगर कुछ से ज्यादा हो तो विश्वविद्यालय की तस्वीरें बदल सकती है। चलिए इस कुछ छात्रों की ही समस्याओं को जान लीजिए!
कक्षाएं ससमय नहीं होती। कक्षा से पहले महाशय का कार्यालय में एक लंबा-चौड़ा भाषण होता है; फिर बीच में मन किया तो कक्षा की ओर चलेंगे। वहां कक्षा की बातें कम और नोट्स खरीद-फरोख्त की बातें ज्यादा होंगी। फिर कोई स्काॅलर आ जाएगा फिर उसे समय देकर किसी भाइवा में शामिल होंगे, वहां चाय-पानी और नास्ता चलेगा, फिर उसके बाद हास्य-व्यंग्य और श्रृंगार रस में डूब जाएंगे। अब यहां भी एक झोल है जिसने नोट्स लिया उनके लिए कई सुविधाएं जैसे बिना कक्षा और बिना आंतरिक परीक्षा दिए उसे सी०आई०ए०(Continious Internal Assessment) में सर्वाधिक अंक मिल जाएंगे। पर जिसने नहीं लिया वो कितना भी कक्षा करें, कितना भी अच्छा लिखें उसे कुछ नहीं मिलेगा। मतलब पढ़ने वालों के मनोबल को तोड़ा जाता है और एक झूठे प्रतिमान गढ़ने का असफल प्रयास होता है। सत्र विलंब है, उपर से कम अंकों का दवाब होगा, वहीं छात्र पैरवी-पैगाम, पैसा और पहूंच के शरण में जाएंगे। मतलब मनोबल वाला प्रतिभा गया तेल लेने और रुपयों के बल पर खेल-मेल शुरु हो गया।
अब बात यहीं खत्म नहीं होती। कई महाशय ऐसे भी हैं जिन्हें पढने-पढ़ाने से मतलब अवश्य रहता है; पर ऐसे कुछ ही महाशय हैं। उनके कुछ ही होने का फायदा, उन ज्यादा वाले महाशय को मिलता है जो महाशय कम व्यापारी ज्यादा हैं। इन समस्याओं को लेकर छात्र नेता जब भी मिलते हैं उन्हें आश्वासन दिया जाता है। कुछ विभाग ऐसे हैं जो कुलपति के आदेशों को भी नहीं मानते ।
विश्वविद्यालय प्रशासन सत्र नियमित करने को लेकर इस तरह दौड़ने लगे हैं कि दोपाया से चौपाया बन गए हैं एक उदाहरण देख लीजिए-लड़का के प्रवेश पत्र पर लड़की का फोटो।
माननीय कुलपति महोदय का कहना था कि एक उचित शुल्क पर परीक्षा-काॅपी की छायाप्रति उपलब्ध करवायी जाएगी; पर अगर किसी को भी काॅपी की छायाप्रति उपलब्ध करवायी गयी हो तो कहिएगा। एक बात जरूर है कि उचित शुल्क जरूर ले लिया गया होगा। अब याद आया एक कहावत चोर-चोर मौसेरे भाई । परीक्षा-नियंत्रक का कहना होता है जबतक काॅपी की छायाप्रति उपलब्ध करवायी जाएगी तबतक उस पेपर का फार्म भरकर परीक्षा दे दीजिए ! मतलब मिलीभगत होती है भाई। सब एक ही सुर अलापते हैं ।
अगर छात्र हंगामा करें तो अलाना-फलाना बाबू बोलेंगे-तुमलोगों को मुझे कहना चाहिए था।
बी०एड० मामला सबको याद है कि भूल गए?अगर भूल गए तो अभी याद आ गया होगा। प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्र 'दैनिक अखबार' ख़बर छापते-छापते परेशान, छात्र संगठन परेशान; पर प्रतिकुलपति के चेहरे का भाव भी बदला क्या?नहीं!
माननीय पाठकगण यहीं हकीकत है!
आपलोगों की कृपा है मौका मिले तो इन सभी विषयों पर लिखते रहेंगे।
धन्यवाद!
बने रहिए बीएनएमयू के साथ.
मिलेंगे इसी आलेख पर एक व्यंग्यरुपी कविता के साथ।
विभीषण कुमार
छात्र स्नातकोतर,हिंदी विभाग
बीएनएमयू
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें