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सोमवार, 30 जुलाई 2018

"आप सावन को कितना जानते हैं ?" पढिये मिंकू मुकेश सिंह जी की बेहतरीन रचना


मैं जानता हूँ कि 'मॉब लिंचिंग, हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण, बलात्कार,शोषण और मन्दिर-मस्जिद चल रहा है।
इसके बीच एक लेख को भी पढ़िए,अच्छा लगेगा।

आप सावन को कितना जानते है?

सावन आ गया ! आज पहला सोमवारी है ! बाबा को जल चढाना है ! "बोल बम" का नारा गूंज उठेगा ! पर सावन के झूले भी सजेंगे ! हम दिल्ली के प्रगति मैदान वाले झूले कि बात नही कर रहे  और ना ही कृत्रिम रुप से बनाए हुये मुम्बई के "एस्सेल वर्ल्ड" की ! मैं तो बात कर रह हूँ , मेरे गांव मे आम के पेड के नीचे लगे हुये झूले की ! बादल को देख देख सभी झुला पर झुलेंगे!
शहर वालो को जेठ,आषाढ़ और सावन थोड़े समझ आता है वो तो बस भागमभाग में रहते है, उनकी जिनगी में तनिको बहार नाही है वो तो बस पैसो से वीकेंड पर खुशी खरीदते है।

सावन मे पीहर / नैहर से सवानिया भी आता है ! कोई तो आएगा , बाबुल का संदेसा लाएगा ! बरस बीत गए , भैया से मिले हुये ! सावन मे ही तो राखी आएगा ! इस बार राखी मे भैया जरुर आएगा ! सफ़ेद कुरता मे सज धज के आएगा ! सावन के हर पल को इंतेज़ार करती हुई अपने पिया के आंगन मे झूले पर झूलती हुयी इस नयी नवेली दुल्हन को कौन समझाए -  "भैया इस बार भी नही आएगा "!
वो सिमा पर देश की सुरक्षा में लगा है फिर कैसे आएगा उसके लिए प्रियसी से ज्यादा महत्व देश रखता है।
बरस बीत गए ! फ़ोन पर बस बहना कि आवाज सुनायी देती है ,भाभी कि चुडियों कि खन्खार सुने हुये कई महिने हो गए ! अब तो मुनिया भी स्कूल जाने लगी होगी , भैया बोले कि पम्प सेट ख़रीदा गया है ! माँ कह रही थी , भैया इस बार डाक बम्ब बन के कांवर लेकर जायेंगे , मेरे प्रमोशन के लिए ऊन्होने पिछले साल मन्नत रखी थी ! और सावन निकल आये .......
आप सावन को कितना जानते हो, जानता तो मैं भी नही पर उत्सुकता रहती है जानने की, क्योंकि ये मुझसे सम्बन्ध रखती है।
ये महीना कजरी गीतों का है लेकिन सावनी कजरी गीतों का यह रिश्ता झूलों का ही मोहताज नही । खेतों मे धान की रोपाई करती युवतियां भी इन गीतों के सुरीली लय से फिजा मे एक अलग ही रस घोल देती हैं ।
लेकिन अब बदलते जमाने के साथ सावन का यह पारंपरिक चेहरा भी तेजी से बदलने लगा है,
पेडों की डालियों मे झूलों की संख्या साल-दर-साल कम होती जा रही है । शहरों मे पली बढी गांव की इन नवयौवनाओं का भला कजरी गीतों से क्या रिश्ता ।
छोटे कपड़ो वाली शहर की छोरियां तो आधुनिक हो गयी है जो अब हन्नी सिंह और बादशाह का रैप सुनती है।
 खेतों मे धान की रोपाई भी अब मजदूरों का काम बन कर रह गया है । ऐसे मे खेतों मे गीतों की वह तान कहां ।
लेकिन फिर भी हमारे ग्रामीण जीवन मे सावन आज भी एक उत्सव की तरह आता है और सभी को अपने रंग मे सराबोर कर देता है । अपने मायके मे सखी-सहेलियों से बतियाने का इंतजार करती यौवनाओं को आज भी सावन का इंतजार रहता है ।



लेकिन यही सावन मानो शहरों से रूठ सा गया हो । कंक्रीट के जंगल के बीच न ही खेत रहे और न ही वह पेड जिनकी डालों पर झूले डाले जा सकें।
सुना हूँ आपके शहर में सड़क बीच से धस जाती है और बरसात में नाले का पानी आपकी कॉलोनी तक आ जाता है।
आधुनिकता ने हरियाली को भी डस लिया है । ऐसे मे बेचारा सावन यहां मानो मन मसोस कर रह जाता है । शहरों से रूठे इस सावन को कभी हम दोबारा बुला सकेंगे, कह पाना मुश्किल है । लेकिन फिर भी उसकी भीगी-भीगी फिजा मे घुली मदहोसी बता ही देती है कि देखो सावन आ गया ।

दिन गुजरते गए और सब कुछ पीछे छूटता गया, साल दर साल बीतने के साथ ही हम आधुनिकता की दौड़ में शामिल होते गए। जबकि घटाएँ अब भी उमड़-घुमड़ कर आती हैं, आकाश अब भी बरसता है, फिल्मो में अब भी सावन के गीत गूँजते हें, गाँव, घर और जंगल अब भी सावन की फुहारों से सराबोर होता है। प्रकृति रूपी प्रेयसी और आकाश रूपी प्रियतम का दिल अब भी मचलता है। अगर कुछ बदला है तो वक़्त, और इस वक़्त के चलते सावन की खुशबू घरों के भीतर तक ही सिमटकर रह गयी है। संस्कृति में रची बसी मौज मस्ती अब क्लबों और होटलों की चमक दमक में गुम होती जा रही है। जो हमारी भारतीय परम्पराओं को दीमक की तरह चाट रही है। हमे सहेजना होगा प्रकृति की इस अनुपम छटा को और इससे उपजे हुये उल्लास को, ताकि दिन प्रतिदिन अवसाद से ग्रसित होती जा रही हमारी संवेदनाओं को पुनर्जन्म मिल सके।

पुनर्जन्म न भी मिले तो हम तो "गाँव,आध्यात्म,मन्दिर और संस्कृति" पर लिखते रहेंगे..नए जमाने के 10 लोग भी पढ़ेंगे तो लिखना सफल रहेगा क्योंकि आधुनिकता में बहुत कुछ मर रहा है।

धन्यवाद
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साभार-
मिंकू मुकेश सिंह जी के फेसबुक वॉल से

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